विषय सूची
क्रम संख्या | विषय |
१.० | असुर और देव के मध्य संघर्ष |
२.० | ऋग्वेद के अनुसार असुर और देव |
२.१ | देवता |
२.२ | देव |
२.३ | असुर |
३.० | उपनिषद और ब्राह्मण काल में असुर और देव |
३.१ | असुर और देव के गुण में अंतर का कारण |
३.२ | देवराज को आत्मा का ज्ञान |
३.३ | ज्ञान की भिन्नता का असुर और देव पर प्रभाव |
४.० | असुर और देव में अंतर – आध्यात्मिक पहलू |
४.१ | उद्गीत विद्या |
४.२ | मानव शरीर में आसुरी और दैवी शक्ति |
५. | कृष्ण के अनुसार असुर और देव में भेद |
५.१ | गीता में असुर और देव का वर्गीकरण |
५.२ | देवों के छब्बीस दिव्य गुणों का वर्णन |
५.३ | असुर के गुण और स्वभाव |
६.० | निष्कर्ष |
असुर और देव के मध्य संघर्ष
असुर और देव प्राचीन काल से एक दूसरे से संग्राम करते रहे हैं । सभी इतिहास और पुराण देवासुर संग्राम की कहानियों से भरे हैं । कभी असुर जीतते थे और कभी देवगण । देवी दुर्गा ने महिषासुर जैसे असुरों से देवों को त्राण दिलाया था । राम ने रावण और उसके असुर परिवार को मार कर सीता को मुक्त किया था । श्रीकृष्ण का बचपन तो इसी प्रकार मायावी असुरों के आक्रमण और उनके अंत में बीता । महान कर्म में असुर और देव मिलकर भी लगे । समुद्र मंथन में दोनों साथ थे । परंतु, तुरंत बाद में शत्रु हो गए और देवासुर संग्राम चलने लगा ।
ऋग्वेद के अनुसार असुर और देव
देवता
यद्यपि देवता शब्द वैदिक काल के बाद ‘देव’ का पर्यायवाची माना जाने लगा, इसका अर्थ पहले काफी व्यापक था । सायण के ऋग्वेद भाष्य भूमिका के अनुसार “देवता तु मन्त्र प्रतिपाद्या ।“ अर्थात ऋग्वेद में देवता किसी भी मंत्र, ऋचा के द्वारा बताए गए विषय को कहते हैं । देवता कोई देव भी हो सकते थे, और कोई असुर भी हो सकते थे । जो भी किसी ऋचा के प्रतिपाद्य विषय थे, वे उस ऋचा के लिए देवता थे ।
देव
देव’ शब्द को हम ‘दिव’ मूल से उत्पन्न मानते हैं, जिसका अर्थ क्रीडा, विजिगीषा (जीतने की इच्छा), व्यवहार, द्युति, स्तुति, मोद, मद, स्वप्न, कान्ति, गति होता है । अतएव, देव वे होते हैं जो इन सब क्रियाओं से सम्बंधित होते हैं ।
यास्क के निरुक्त की परिभाषा के अनुसार देव का वर्णन निम्न प्रकार किया गया है
“देवो दानाद् वा, दीपनाद् वा, द्योतनाद् वा, द्युस्थानो भवतीति वा।“
देव जो दान के द्वारा, अपने आंतरिक प्रकाश के कारण, जन सामान्य को ज्ञान प्रकाश देने के कारण, और स्वर्गीय अवस्था से पहचाने जाते हैं ।
अतएव, देव अपनी दिव्यता से, दयालुता से, आनंद देने से, उत्तम व्यवहार से, स्तुति के पात्र होते हैं ।
ऋग्वेद में देव उन शक्तियों को निरूपित करते हैं, जो कि आंखों और अन्य इंद्रियों को दिव्य लगते हैं और मनुष्य तथा संसार के लिए हितकारी हैं । अतएव अग्नि, वायु, सूर्य, आदि देवता ‘देव’ कहे गए ।
असुर
‘
‘असुर’ शब्द की व्युत्पत्ति ‘असु’ मूल से मानी जाती है । ‘असु’ का अर्थ प्राण शक्ति, श्वास है । अतएव, ऋग्वेद में असुर ईश्वर के प्राण से उत्पन्न शक्ति को कहा गया । ये हितकारी और शक्तिशाली तो हैं, परंतु दृश्य और महसूस नहीं होने के कारण देव नहीं कहे जा सकते हैं । ऋग्वेद में मित्र, वरुण, अर्यमा, अश्विनी और इंद्र जैसे देवता भी असुर शब्द से सम्बोधित किए गए हैं, क्योंकि ये किसी प्राकृतिक दिव्य शक्ति वाले नहीं दिखते हैं । इन देवताओं के महत्त्व को आंतरिक रुप से ही महसूस किया जा सकता है ।
इस क्रम में, आप इस बात पर ध्यान दे सकते हैं कि प्राचीन ग्रंथ सुरासुर संग्राम या सुर-असुर संग्राम का उल्लेख नहीं करते हैं, हमेशा देवासुर संग्राम ही कहा जाता है । इसका कारण यह है कि सूर्य से सम्बंधित ‘सुर’ शब्द काफी बाद में देव का पर्याय माना गया । अतएव असुर शब्द ‘अ’+’सुर’ से नहीं निकला है । इसका अर्थ वैदिक काल की शुरुआत में देवताओं से ऋणात्मक या विरोधी गुण को बताने में नहीं होता था ।
बाद में जो असुर और देव के उपासक या मानने वाले थे, वे असुर और देव कहे जाने लगे । धीरे-धीरे वैदिक काल के अंत में असुर और देव वर्ग के मध्य काफी विरोध दिखाई देने लगा ।
उपनिषद और ब्राह्मण काल में असुर और देव
असुर और देव के गुण में अंतर का कारण
छान्दोग्य उपनिषद के आठवें और अंतिम अध्याय में भी असुर और देव के अंतर के कारण को एक अद्भुत कहानी द्वारा बताया गया है ।
इस कहानी में एक ओर इंद्र हैं, जो देवों के राजा हैं और दूसरी ओर असुर राज विरोचन हैं । देवराज 101 साल तक अध्ययन, मनन और ध्यान में बिताए आत्म-नियंत्रण का जीवन जीने के बाद आत्मा का बोध प्राप्त करते हैं । असुर राज बत्तीस वर्षों तक मनन और ध्यान के पश्चात शिक्षा प्राप्त कर, उसे नहीं समझ पाते हैं, और गलत ज्ञान के कारण भौतिक वादी सिद्धांत को फैलाते हैं ।
इस कहानी का प्रारम्भ प्रजापति द्वारा अपने सभी संतानों की सभा में आत्मा के ज्ञान के महत्त्व के सम्बंध में बताने से शुरु होता है । सृष्टिकर्ता प्रजापति इस ज्ञान से असीमित आयु , निर्भयता, अमरता, पूर्ण स्वतंत्रता और आत्म-साक्षात्कार द्वारा सभी इच्छाओं की पूर्ति का वादा करते हैं ।
यह जो आत्मा है, वह सभी प्रकार के पाप, जरावस्था, मृत्यु, आदि से मुक्त है । यह भूख, प्यास, कष्ट, दुःख, भय सब से मुक्त है । इस की कामना ही सत्य, सिद्ध होती है । अतएव, सफलता और अमरता चाहने वाले को सत्य संकल्प से खोज-बिन कर आत्मा का विशेष ज्ञान अवश्य प्राप्त करना चाहिए ।
इसे सुन कर, देव और असुर दोनों ही प्रजापति के पास इस ज्ञान की प्राप्ति हेतु अपने राजा को शिष्य बनने के लिए भेजते हैं । दोनों ने पहले बत्तीस वर्ष तक मौन, तप और यम, नियम के पालन के साथ जीवन बिताया । इसके बाद, उनके पूछने पर ब्रह्मा ने बतलाया,”अपनी आंखों में जिस पुरुष को तुम देखते हो, वही आत्मा है ।“
दोनों ने यही समझा कि आंखों में जो जल या आईने से प्रतिबिम्बित हो अपना शरीर दिखता है, वही आत्मा है । पूछने पर ब्रह्म ने यह बतलाया कि जल या आईने में उस की प्रति छवि दिखती है । इस आसान परिचय से उनको लगा कि उनका अपना शरीर ही आत्मा है । यह गलत समझ प्राप्त कर वे अपने राज्यों को लौट गए ।
असुरों के राजा विरोचन अपने राज्य लौट गए और अपनी सभी असुरों को यही बतलाए कि यह शरीर ही आत्मा है और इसको पूर्ण, शक्तिशाली और सुसज्जित रखना ही कर्तव्य है । ‘असु’ धातु रुप श्वास के लिए आता है और श्वास, प्राण की शक्ति को ही सर्वश्रेष्ठ मानने के कारण ये प्रजा असुर कही जाती हैं ।
दूसरी ओर इंद्र अपने राज्य लौटने के क्रम में चिंतन करने लगे । आत्मा के बताए गुणों पर ध्यान देने पर उन्होंने देखा कि शरीर तो अमर नहीं और सभी प्रकार के कष्ट, जरा, भय से प्रभावित होता है । इससे देवराज को अपनी समझ की त्रुटि स्पष्ट हो गई । वे रास्ते से ही फिर प्रजापति के पास लौट गए ।
उनको प्रजापति ने पुनः बत्तीस वर्ष तक तप, मौन और यम, नियम का पालन करने को कहा । इस अवधि के बिताने के बाद, इंद्र को ब्रह्मा ने यह कहा, “शरीर के सुख, दुःख, भय, कमजोरी, आदि का प्रभाव मनुष्य पर तब नहीं होता है, जब वह स्वप्न की अवस्था में रहता है । आत्मा वह है जो इस स्वप्न की अवस्था में भी आनंद से पूर्ण है, जो भय, जरा और मृत्यु से परे है ।“
इस ज्ञान को पा कर इंद्र फिर से सन्तुष्ट हो लौट चले । सच में, यदि कोई अंधा या विकलांग भी हो, तो स्वप्न में वह पूर्ण दिखता है । परंतु मार्ग में मनन के दौरान उनको इस पहचान में भी कमी दिखी । स्वप्न में भी तो जागृत अवस्था की तरह ही भय, दुःख, मृत्यु की अनुभूति, आदि का सामना करना होता है । वे फिर लौट चले ।
ब्रह्मा से फिर ज्ञान देने का अनुरोध किया । पहले की तरह, उनको फिर बत्तीस साल तप, मौन और यम, नियम का पालन करते हुए बिताने के बाद ब्रह्मा ने उत्तर दिया, “आत्मा इस शरीर की कमियों से और स्वप्न के सुख, दुःख, भय, आदि से तब अप्रभावित रहता है, जब वह गहरी निद्रा, सुषुप्ति में रहता है । स्वप्न रहित गहरी निद्रा की अवस्था में आत्मा सभी दुःख, भय, जरा, मृत्यु से परे हो जाता है ।“
संतुष्ट होकर इंद्र अब अपने राज्य को चले । परंतु, मार्ग में मनन करते हुए, फिर देवराज को यह विचार आया कि गहरी नींद में आत्मा का अस्तित्व का तो कोई अर्थ ही नहीं है । ये तो शून्य, नष्ट अवस्था में अपने को या दूसरे को जानने की शक्ति भी नहीं रखेगा । इसका क्या लाभ होगा? ये सारी कामना तो पूर्ण नहीं ही कर सकेगा ।
इंद्र फिर लौटे और फिर ज्ञान का अनुरोध किया । इस बार ब्रह्मा ने और पांच वर्ष तक तप, मौन और यम, नियम का पालन करने के लिए कहा । इस अवधि के बाद ब्रह्मा ने बतलाया कि आत्मा यद्यपि शरीर के द्वारा अपने अस्तित्व को दिखलाता है, ये शरीर नहीं है । स्वप्न और गहरी निद्रा की अवस्था इसको शरीर से अलग पहचान में रखती हैं, परंतु बेहोशी की अवस्था भी आत्मा नहीं है ।
देवराज को आत्मा का ज्ञान
आत्मा की पहचान परम चेतना में है, जो प्राण के बंधन से शरीर की चेतना से बंधा है । जो तुम एक जीवन मुक्त के आंख से देखते हो वही आत्मा है । वास्तव में आंख, कान, आदि सिर्फ पहचान के यंत्र है, जो देखने वाला है और जो दिखता है, वह आत्मा ही है । जो सुनने वाला है और जो सुनाई देता है, वह आत्मा है । इसी प्रकार जो जानने वाला है और जिसे जानते हैं, वह आत्मा ही है । आत्मा तो यह परम चेतना है । इंद्र इस प्रकार आत्मा की पहचान के साथ लौटे ।
ज्ञान की भिन्नता का असुर और देव पर प्रभाव
देवों और असुरों के विचार, रहन-सहन की भिन्नता दोनों द्वारा आत्मा के सही और गलत पहचान के कारण सदियों से बरकरार है ।
असुर अपने शरीर के सुख, शक्ति और सज्जा के प्रयास में लगे रहे और अन्य किसी प्राणी, मनुष्य, समाज,और विश्व के हित की सोच उनमें नहीं रही । सिर्फ जीवन में ही नहीं, मृत्यु के बाद भी शरीर को सजा कर अपने ज्ञान के अनुसार सुरक्षित रखने की प्रथा असुरों में चलती आ रही है ।
दूसरी ओर आत्मा और ब्रह्म की पहचान के कारण देव अपने शरीर और स्वार्थ से ऊपर उठकर सब प्राणियों और विश्व के हित का प्रयास करते रहे ।
असुर और देव के अंतर – आध्यात्मिक पहलू
उद्गीत विद्या
छान्दोग्य उपनिषद के प्रथम अध्याय में उद्गीत, या ‘ओम’ का ब्रह्म , ईश्वर की सर्व श्रेष्ठ शाब्दिक पहचान के रुप में बताया गया है । इस आधार पर उपासना की विधि बताने में एक कहानी बताई गई । यह विद्या लेखक की पुस्तक “ध्यान के शाश्वत सिद्धांत: ब्रह्म विद्या भाग १” में वर्णित है ।
एक बार की बात है, जब प्रजापति से उत्पन्न दोनों संतति असुर और देव आपस में संघर्ष, युद्ध कर रहे थे । देवों ने उद्गीत को यह सोचकर अपने साथ ले लिया, “इसी से हम इन असुरों का युद्ध में दमन कर सकेंगे ।
देवों ने नाक से लिए जाने वाले ‘श्वास’ के माध्यम से उद्गीत के रूप में ब्रह्म की उपासना, सतत ध्यान करने का फैसला किया । तब असुरों ने इस श्वास को पाप से छेद दिया । जब श्वास को बुराई से छेद दिया गया, विकार ग्रस्त कर दिया गया, तब अच्छी गंध के अलावा दुर्गंध को भी नाक सूंघने लग गया । इस कारण, इस विधि से उद्गीत की उपासना सम्भव नहीं रही ।
इसके बाद अन्य इंद्रियों के माध्यम से देवगण इस उपासना को करने का प्रयास करते हैं । दैवी शक्तियों ने नाक, वाणी, आंख, कान जैसे इन्द्रिय अंगों के माध्यम से एक-एक करके उद्गीत का ध्यान किया । आसुरी शक्तियों द्वारा दूषण के फलस्वरूप अच्छी और गंदी दोनों प्रकार की गंध आती है, वाणी सत्य और असत्य दोनों वचनों को बोलती है, दृष्टि सुंदर और भद्दा दोनों चीजों को देखता है और कान दोनों को सुनता है जो सुनने में अच्छा है और जो सुनने के लायक नहीं है । मन द्वारा भी उद्गीत का ध्यान सम्भव नहीं होता है, यदि वह भी असुर द्वारा गंदा कर दिया जाता है । मन में भी अच्छे विचारों के साथ बुरे विचार भी आते रहते हैं ।
अंत में, देवगण मुख्य प्राण शक्ति, मुंह से सांस के माध्यम से उद्गीत पर सतत ध्यान, उपासना करने में सक्षम हुए । इस श्वास को दुर्गंध, बुराई द्वारा भेदा नहीं जा सकता है । बल्कि, जब कोई इस तरह से ध्यान करता है तो बुराई का बल बिखर जाता है । इस प्रकार यह बताया गया कि ‘ॐ’ का ध्यान मुख्य प्राण, मुंह की सांस के माध्यम से किया जाना चाहिए । ‘ॐ’ को एक इच्छापूर्ण, आनंदमय तरीके से गाया जाना चाहिए । इसी माध्यम से ‘ॐ’ के प्रयोग से सिद्धि मिलती है ।
मानव शरीर में आसुरी और दैवी शक्ति
सभी प्राणियों के शरीर में दो प्रकार की शक्तियों के मध्य ‘लड़ाई’ जैसा कुछ चलता रहा है । पहली आसुरी शक्ति केवल जीवन-शक्ति से सम्बंधित होती है, जो जीवन के सामान्य कार्य कलाप, इंद्रियों के आनंद भोग की ओर खींचती है । यह इंद्रिय, अंगों के सभी प्राकृतिक कार्यों, शक्ति को बताती है । ज्ञान से प्रकाशित होने के बाद दैविक शक्ति प्राप्त होती है, जो इंद्रियों के दिव्य कर्म, शक्ति के लिए प्रयुक्त होता है । यह दिव्य आचरण, व्यवहार के प्रति झुकाव कराती है ।
आध्यात्मिक रुप से सोचने पर हम देखते हैं कि एक वास्तविक ‘देवासुर संग्राम’ (देवों और असुरों के बीच युद्ध), पुरातन अनंत समय से अपने शरीर में ही चल रहा है । यहां ‘प्रजापति’ का अर्थ व्यक्तित्व, कार्य करने और ज्ञान प्राप्त करने में सक्षम व्यक्ति से है । देवों और असुरों का प्रतिनिधित्व करने वाले इंद्रियों के सभी कार्य, वृत्तियाँ – एक जो शास्त्रों, नियमों से प्रकाशित होते हैं, साथ ही दूसरे जो उनके विपरीत प्राकृतिक पाशविक हैं, एक ही व्यक्ति में रहते हैं, और इस तरह प्रजापति के ‘संतान’ कहलाते हैं । असुर जो ‘असु’, ‘श्वास’ से सम्बंधित है, जन्म के साथ मनुष्य के शरीर में हैं । देव शक्ति का उदय शरीर में बाद में ज्ञान, सद्गुणों से प्रकाशित होने पर होता है । इससे असुर देव से पहले उत्पन्न माने गए हैं ।
उद्गीत, ईश्वर के सर्वश्रेष्ठ प्रतीक, अच्छाई के सार का सार है, जिसे दिव्य शक्तियां अपने साथ यह सोचकर रखती हैं कि इसके सतत ध्यान के साथ बुराई को दबा देंगे । हालांकि, इंद्रियों के बुराई, पाप से सम्बंध होने से वे ठीक से सतत ध्यान, उपासना करने में विफल रहते हैं और हर बार बुरी ताकतें जीतती दिखती हैं । इंद्रियों की शुद्धि की विधि का ज्ञान देने के उद्देश्य से, इस युद्ध को यहां एक कहानी के रुप में वर्णित किया गया है ।
कृष्ण के अनुसार असुर और देव में भेद
गीता का सोलहवां अध्याय संपूर्ण मानव जाति को देव और असुर के रूप में वर्गीकृत करता है। यह उनके संबंधित गुणों और आचरण के तरीकों की गणना करता है। इस अध्याय को दैवीय और आसुरी लक्षणों के बीच विभाजन का योग कहा जाता है।
गीता में असुर और देव का वर्गीकरण
असुर हमेशा शास्त्र के आदेशों के विपरीत रहते हैं। वे हमेशा विचलन, दुःख और बंधन में रहते हैं। अनंत अपूर्ण इच्छाओं के साथ, वे लगातार जन्म और मृत्यु के चक्रों से गुजरते हैं।
देव अपनी इच्छाओं पर विजय प्राप्त करते हैं। वे शांति और खुशी में रहते हैं, और अंत में वे आत्मज्ञान के लक्ष्य तक पहुंचते हैं। विपरीत प्रकार के गुणों के दो वर्ग को सूचीबद्ध करते हुए, भगवान हमें आसुरी गुण को मिटाने और दिव्य गुणों को विकसित करने का आग्रह करते हैं।
देवों के छब्बीस दिव्य गुणों का वर्णन
श्रीकृष्ण देवों के छब्बीस दिव्य गुणों का वर्णन इस प्रकार करते हैं:
निर्भयता, हृदय की पवित्रता, ज्ञान और योग में दृढ़ता, दान, इंद्रियों पर नियंत्रण, यज्ञ, शास्त्रों का अध्ययन, तपस्या और सीधापन, हानि रहितता, सत्य, क्रोध का अभाव, त्याग, शांति, कुटिलता का अभाव, प्राणियों के प्रति करुणा, कोई लोभ, नम्रता, शील, चंचलता का अभाव, शक्ति, क्षमा, धैर्य, पवित्रता, घृणा की अनुपस्थिति और अभिमान की अनुपस्थिति – ये एक देव वर्ग में पैदा हुए व्यक्ति के गुण हैं ।
गुणों की सूची उन सभी के लिए एक मार्गदर्शक के रूप में कार्य करती है जो जीवन जीने के सही तरीके की तलाश में हैं और परिपूर्ण बनने का प्रयास करते हैं।
असुर के गुण और स्वभाव
श्रीकृष्ण ने आगे आसुरी स्वभाव के एक आदमी का वर्णन किया है। हे श्रेष्ठ भारतीय ! दैवीय प्रकृति मुक्ति की ओर ले जाती है, जबकि आसुरी प्रकृति बंधन की ओर ले जाती है। पाखंड, अहंकार, आत्म-दंभ, क्रोध, कठोरता और अज्ञान में एक असुर पैदा हुआ होता है ।
असुर कर्म के मार्ग या त्याग के मार्ग के बारे में नहीं जानता, न पवित्रता और न ही सही आचरण को जानता है, और न ही सत्य उसमें पाया जाता है। छोटी बुद्धि और भयंकर कर्मों वाली ये बर्बाद आसुरी आत्माएं यह विचार रखती हैं कि ‘यह ब्रह्मांड सत्य के बिना है, एक (नैतिक) आधार के बिना, एक भगवान के बिना, इसकी उत्पत्ति का कारण वासना के साथ आपसी मिलन मात्र है, और क्या’?
असुरों का मूल मंत्र है,
“यावद जिवेत सुखं जिवेत ऋणम कृत्वा घृतं पिबेत, भस्मिभूतस्य देहस्य पुन: आगमनं कुत:”
“खाओ, पीओ और मगन रहो, क्योंकि मृत्यु निश्चित है और उससे परे कुछ भी नहीं है।“
असुर नहीं जानते कि जीवन में शांति, सद्भाव और आनंद क्या है। उनके अनुसार दुःख और परवाह ही जीवन की सामग्री हैं। अंततः, वे दुखी मौत में समाप्त होते हैं, थके हुए और निराश होते हैं।
असुर आत्म-अभिमानी, जिद्दी, धन के अभिमान और नशे से भरे हुए हैं, घोषणा करते हैं, “मैं सबसे शक्तिशाली हूँ; मुझे मजा आता है; मैं परिपूर्ण, शक्तिशाली और खुश हूं। मैं अमीर हूं और एक कुलीन परिवार में पैदा हुआ हूं। मेरे बराबर और कौन है?”
असुर दुनिया के दुश्मन के रूप में इसके विनाश के लिए सामने आते हैं। अतृप्त इच्छाओं से भरे हुए, पाखंड, अभिमान और अहंकार से भरे हुए, भ्रम के माध्यम से बुरे विचारों को पकड़े हुए, वे अशुद्ध संकल्पों के साथ काम करते हैं।
दुनिया में असुर के कार्य आपदा का कारण हैं। वासना और क्रोध के आगे सैकड़ों बंधनों से बंधे हुए, वे कामुक आनंद के लिए अन्यायपूर्ण साधनों से धन की भीड़ इकट्ठा करने का प्रयास करते हैं। अपने आप को अथाह परवाह करने के लिए सौंपते हुए, वासना की संतुष्टि को अपने सर्वोच्च उद्देश्य के रूप में मानते हुए और यह महसूस करते हुए कि यह सब है, वे भौतिक वादी सिद्धांत का पालन करते हैं ।
धर्म के काम के सम्बंध में असुर गर्व से कहते हैं, “मैं यज्ञ करूंगा। मैं दान दूंगा। मैं आनन्दित होऊंगा।“ लेकिन वे नाम से, आडंबर से, बिना विश्वास के और शास्त्र की विधियों के विपरीत यज्ञ करते हैं।
अहंकार, शक्ति, और अभिमान और वासना और क्रोध के आगे झुककर, ये दुर्भावनापूर्ण लोग अपने शरीर में और दूसरों के शरीर में बसे ईश्वर से घृणा करते हैं। वे आसपास के लोगों के प्रति क्रूर हैं। क्रिया और प्रतिक्रिया के नियम के अनुसार, ऐसे लोग बार-बार आसुरी वातावरण में पैदा होते हैं जब तक कि उन्हें अपनी मूर्खताओं का एहसास नहीं होता।
आत्म-वासना, क्रोध और लोभ नरक के अंधकार के तीन द्वार हैं । भगवान कहते हैं कि जिसने अंधकार के इन तीन द्वारों को त्याग दिया है, वह जीवन के लक्ष्य की ओर लगातार प्रगति करेगा। साधक को अपने जीवन के संचालन में गीता के इन उपदेशों का पालन करना चाहिए कि क्या करना है और क्या टालना है।
निष्कर्ष
हालाँकि, यह ध्यान में रखा जाना चाहिए कि मानव जाति को असुर और देव के दो अलग श्रेणियों में विभाजित नहीं किया जा सकता है; कई लोग आंशिक रुप में दोनों के स्वभाव रखते हैं।
प्रत्येक व्यक्ति को स्वयं का विश्लेषण करना चाहिए और अपने चरित्र में अवांछनीय लक्षणों का पता लगाना चाहिए और उन्हें उसी समय भेदभाव और आत्म निरीक्षण के साथ सुधारना चाहिए। इस विश्लेषण के लिए व्यक्ति को स्वयं के प्रति सच्चा होना चाहिए और अपने मानसिक कार्यों का साक्षी होना चाहिए। तभी कोई जान सकता है कि उसके विचार और कार्य आत्म-विकास के साधन साबित होंगे या नहीं। आसुरी अवस्था से देव की अवस्था को वह तभी पा सकेगा ।
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